अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस : भारत में शिक्षकों को नहीं आ रही संडे की स्पेलिंग
अखबार पढ़ते-पढ़ते नजर एक खबर पर गई जहां शिक्षकों के गुणवत्ता पर सवाल उठाए गए थे, यहीं नहीं खबर में यह भी बताया गया था कि कैसे 5वीं कक्षा के छात्र को एक संडे की स्पेलिंग नहीं आती है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि हर साल साक्षरता दर को बढ़ाने वाली सरकारी दावों की असलियत क्या है? आज पूरा विश्व अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस मना रहा है, लेकिन आज भी यह सवाल कायम है कि क्या सिर्फ साक्षरता दर बढ़ा लेने भर से समाज शिक्षित और काबिल हो जाएगा?
साक्षरता एवं शिक्षा में बहुत बड़ा अंतर होता है। साक्षरता और शिक्षा में सबसे बड़ा अंतर विश्लेषण क्षमता का होता है। साक्षरता का आधार शिक्षा अर्जित करना होता है और शिक्षा का आधार ज्ञान। एक व्यक्ति बिना साक्षर हुए भी शिक्षित हो सकता है। भारतीय इतिहास में बहुत से संत महात्मा एवं धार्मिक गुरु निरक्षर थे, लेकिन वे काफी ज्ञानी थे। एकेडमिक शिक्षा हमें साक्षर और सूचनाओं से समृद्ध बना सकती है, लेकिन उनका इस्तेमाल हमारी वास्तविक शिक्षा की शक्ति पर निर्भर करती है। शिक्षा का मतलब केवल पढ़ना और लिखना सीख जाना नहीं होता। रट्टा लगाने से तोता भी बोलने लगता है, लेकिन तोता किसी को ज्ञान नहीं दे सकता। पढ़-लिखकर हम साक्षर तो बन जाते हैं, लेकिन ज्ञान अर्जित नहीं कर पाते, किसी चीज़ की व्याख्या नहीं कर सकते।
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प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों को शिक्षा के नाम पर अक्षर ज्ञान कराया जा रहा है, तो माध्यमिक और उच्च शिक्षा की भूमिका उन्हें डिग्री और प्रमाणपत्र उपलब्ध कराने तक सीमित है। भारतीय विद्यालयीन शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता पर आधारित एएसईआर के एक अध्ययन से पता चलता है कि 38 फीसदी बच्चे छोटे-छोटे वाक्यों वाला पैराग्राफ नहीं पढ़ सकते और 55 फीसदी सामान्य गुणा–भाग नहीं कर सकते। बुनियादी शिक्षा में विस्तार तो हुआ है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की चेष्टा तक नहीं हुई है। समस्या यह भी है कि शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर एक बड़ी संख्या में शिक्षक अपनी भूमिका का सही तरह निर्वाह नहीं कर रहे हैं!
भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सबसे बड़ी बाधा शिक्षकों की कमी और अवसंरचनात्मक विकास का न होना है। अगर शिक्षकों की संख्या कहीं पर्याप्त भी हैं तो योग्य शिक्षकों की अभी भी भारी कमी है, और जो शिक्षक हैं भी, उनमें से अधिकांश स्कूल से अधिकतर समय गायब ही रहते है। शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फीसदी शिक्षकों की कमी है। स्कूलों में शिक्षकों के पढ़ाने का स्तर भी समय के साथ बेहतर होने के बजाए बदतर हुआ है और साथ में छात्रों के सीखने का स्तर भी। शिक्षा के गिरते स्तर के लिए निरीक्षण करने वाले सरकारी तंत्र की निष्क्रियता भी जिम्मेदार है।
1947 में आजादी के समय पूरे भारत में कुल 27 मान्यता प्रापत विश्वविद्यालय हुआ करते थे, जो अब बढ़ कर 560 के पार पहुंच चुके हैं, लेकिन अच्छे संस्थानों की अभी भी कमी है। हैरानी की बात यह भी है कि भारत में दशकों से कई विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है। अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए कट ऑफ काफी बढ़ जाता है। दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला के लिए कट ऑफ 99फीसदी तक पहुंच जाता है।
एक नजर आंकड़ों पर डालने पर पता चलता है कि 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में साक्षरता दर 75 फीसदी के आसपास है, लेकिन अब भी भारत दुनिया की साक्षरता दर 85 फीसदी से बहुत पीछे है। गौरतलब है कि आजादी के समय (1947) साक्षरता दर मात्र 15 फीसदी के आसपास थी। लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि यहां पर 40 फीसदी से अधिक लड़कियां10 वीं कक्षा के उपरांत स्कूल छोड़ देती है। यही नहीं संख्या की दृष्टि से देखने पर भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है, लेकिन जहां तक गुणवत्ता की बात है, दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। हालत यह है कि स्कूल की पढ़ाई करने वाले 9 छात्रों में से एक ही कॉलेज तक पहुंच पाता है और यही कारण है कि भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम (11 फीसदी) है जबकि अमेरिका में ये अनुपात 83फीसदी है।
हाल ही में नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार भारत में आर्ट्स से पढ़ने वाले10 में से एक और इंजीनियरिंग कर चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हुए शोध में से एक तिहाई अमेरिका में होते हैं। इसके ठीक विपरीत भारत से सिर्फ तीन फीसदी शोध पत्र ही प्रकाशित हो पाते हैं। सर्वशिक्षा अभियान, सतत् शिक्षा और शिक्षा का अधिकार जैसी तमाम सरकारी पहलों के बावजूद भारत में विश्व की 30 फीसदी के करीब निरक्षर आबादी भारतीयों की है।
मैनेजमेंट गुरु पीटर ड्रकर ने कहा था कि आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जाएगा। दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं, लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहां की शिक्षा का स्तर किस तरह का है।
वास्तव में भारत की शिक्षा प्रणाली इस कदर खामियों से ग्रस्त हो गई है कि छिटपुट सुधार की कोई कोशिश सार्थक पहल सिद्ध नहीं होने वाली। बात चाहे शिक्षा व्यवस्था की हो या शैक्षणिक पाठ्यक्रम की, हमारी शिक्षा व्यवस्था अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर पा रही है। देश की घिसी-पिटी शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन की कोई पहल ही शिक्षा के स्तर को बढ़ा सकता है। पिछले कई वर्षों से शिक्षा व्यवय्था में ऐसी कोई ठोस पहल नहीं की जा सकी है, जिससे हालात बेहतर बनाए जा सकें। सैम पित्रोदा ने भी कहा था कि आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है।
शिक्षा को लेकर मन में एक डर यह भी है कि शिक्षा हासिल करना लगातार जिस तरह से महंगा होता जा रहा है, उससे कुछ समय बाद ऐसा न हो कि यह गरीबों के पहुंच के बिल्कुल बाहर हो जाए। महंगी तो निजी क्षेत्र की प्राथमिक शिक्षा भी हो रही है, लेकिन उससे भी ज्यादा चिंता का विषय उच्च शिक्षा के लिए बने निजी संस्थानों को लेकर है, जहां भारी कैपिटेशन फीस लिए जाने की खबरें आती रहती हैं। यह सच है कि शिक्षा के क्षेत्र में निजी निवेश लगातार बढ़ रहा है, लेकिन यह बता पाना मुश्किल है कि कौन सचमुच शिक्षा के लिए निवेश कर रहा है और कौन पैसा कमाने के लिए।
मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु कहते हैं कि आम धारणा ये है कि अगर कोई लाभ कमाना चाहता है, तो वो अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है? ये एक गलत तर्क है। इसी तरह शिक्षा में अगर कोई लाभ कमाने वाली कंपनी विश्वविद्यालय शुरू करना चाहती है तो हमें उसके आड़े नहीं आना चाहिए जबकि जाने-माने शिक्षाविद प्रोफेसर यशपाल कहते है कि शिक्षा में निजीकरण की जरूरत तो है लेकिन इस पर भी नियंत्रण रखा जाना चाहिए।
यह आज के समय की मांग है कि हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को ऐसा रूप दें कि आज की चुनौतियों का सामना कर सके। एक तरफ भारत का गौरवशाली शैक्षणिक इतिहास है और दूसरी तरफ आज देश का लगातार गिरता शैक्षणिक स्तर। भारत में प्रारंभिक से लेकर उच्च शिक्षा की दिशा तो जरूर बदल रही है, लेकिन जरूरत है दशा बदलने की जिसके लिए अभी प्रयास जारी है। ऐसा नहीं है कि भारत में योग्यता की कमी है, भारतीय छात्र देश-विदेश में अपनी पैठ जमा चुके हैं। भारत के विभिन्न संस्थानों से निकले छात्रों ने पूरी दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है।
इस समय भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है, जिसमें से 12 करोड़ लोगों की उम्र 18 से 23 साल के बीच की है। अगर इन्हें वैश्विक जरूरतों के अनुसार शिक्षा दी जाए इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत के लिए महाशक्ति बनने की राह ज्यादा आसान हो जाएगी