Saturday, August 22, 2015

UPTET SARKARI NAUKRI News - - कोर्ट का हथौड़ा शिक्षा व्यवस्था को झकझोरेगा?

UPTET SARKARI NAUKRI   News - 

कोर्ट का हथौड़ा शिक्षा व्यवस्था को झकझोरेगा?
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कृष्ण कुमार
शिक्षाविद
इलाहाबाद हाई कोर्ट का आदेश जारी होते ही अपील की चर्चा शुरू हो गई है. आदेश क्या है, उत्तर प्रदेश की सरकारी मशीनरी में एक सपना फूंकने की कोशिश है.
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में सभी जनप्रतिनिधियों, नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को सरकारी प्राइमरी स्कूल में पढ़ने को अनिवार्य बनाने का इसी हफ़्ते आदेश दिया है.

सपना सुंदर और सुखद है मगर जिस नींद में शिक्षा व्यवस्था सोई हुई है, वह ज़्यादा दुखद है. व्यवस्था बंटी हुई है.
प्राइवेट स्कूल लगातार फल फूल रहे हैं, सरकारी स्कूल बेदम हैं. सर्व शिक्षा अभियान के तहत सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ी है, लेकिन सुधारों का सिलसिला रुक सा गया है.
सबसे बड़ी मुश्किल शिक्षकों की तैनाती को लेकर खड़ी हुई है. उनकी कमी पूरे देश में है, पर उत्तर के राज्यों की स्थिति ज़्यादा ख़राब है.
उत्तर प्रदेश की स्थिति को संवारना आसान नहीं है और सरकार की इच्छा शक्ति लंबे समय से कमज़ोर रही है.

हाई कोर्ट के आदेश से सरकार की इच्छा शक्ति जाग सकती है, पर ज़्यादा संभावना इस बात की है कि प्रतिरोध की इच्छा जागे और अपील के रास्ते आदेश को पलटवाने की कोशिश करे.

इस संभावना की वजह सरकार और समाज दोनों में ढूंढी जा सकती है. प्राइवेट स्कूल बेहतर हैं, यह मान्यता समाज और सरकार दोनों में व्याप्त है.
उत्तर प्रदेश में प्राइवेट स्कूलों का इतिहास सरकारी स्कूलों से ज़्यादा पुराना नहीं है. अंग्रेजों के समय में उत्तर प्रदेश संयुक्त प्रांत कहलाता था.
19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में लागू की गई 'ग्रांट इन एड' या प्राइवेट स्कूलों को सरकारी अनुदान से चलाने की नीति जिन दो बड़े राज्यों में सबसे ज़ोर-शोर से चली वो बंगाल और संयुक्त प्रांत ही थे.
लेकिन आज बहुत बड़ी संख्या ऐसे प्राइवेट स्कूलों की है जो सरकार सहायता नहीं लेते. ये स्कूल अपना ख़र्च ऊंची फ़ीस लेकर चलाते हैं.
शहरी मध्य वर्ग अपने बच्चों को इन्हीं स्कूलों में पढ़ाना पसंद करता है. सरकारी अधिकारी और नेताओं के बच्चे इन्हीं स्कूलों में पढ़ते हैं.
प्राइवेट स्कूल
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मामला सिर्फ वर्दी और अंग्रेज़ी का नहीं है. इन स्कूलों की साख इस कारण भी है कि वे क़ायदे से यानी नियमित चलते हैं.
इनकी तुलना में सरकारी इस्कूल कमज़ोर दिखते हैं. ये स्कूल लगभग मुफ़्त शिक्षा देते हैं. पर आज उनमें मुख्यतः निर्धन वर्गों और निचली जातियों के बच्चे दिखाई देते हैं.
सर्व शिक्षा अभियान के तहत सरकारी स्कूलों की तादाद बढ़ी है. वैसे सरकारी अनुदान से चलने वाले स्कूल पहले से ही उत्तर प्रदेश में काफी बड़ी संख्या में रहे हैं.
आज छोटे से छोटे गांव में प्राइमरी स्तर का सरकारी स्कूल है. उसके समानांतर गांव-गांव में अंग्रेज़ी माध्यम का दावा करने वाले प्राइवेट स्कूल खुल रहे हैं.
सामाजिक हवा का इशारा है कि पढ़ाई इन्हीं में होती है. सरकारी स्कूल में तो बस खाना मिलता है, वर्दी और वजीफ़ा बंटता है. बच्चों के स्तर पर समाज का बंटवारा हो चुका है.
जो भी थोड़ी बहुत हैसियत रखता है और फ़ीस दे सकता है, अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से हटा लेना चाहता है. उत्तर प्रदेश में निर्धन मज़दूर और छोटे किसानों का वर्ग बहुत बड़ा है.
शिक्षकों की कमी
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इसलिए सरकारी स्कूलों में भी बच्चों की संख्या काफ़ी बढ़ी है. शिक्षा का अधिकार क़ानून आने के बाद से इन स्कूलों की इमारत और सुविधाएं भी सुधरी हैं, पर एक समस्या लगातार बनी रही है और इधर के सालों में विकराल रूप ली जा रही है. यह समस्या है शिक्षकों की कमी की.
इस समस्या का दूसरा चेहरा है शिक्षकों में उत्साह के अभाव का. उन पर नौकरशाही का दबदबा लगातार रहता है. जोड़तोड़ के बल पर अनेक शिक्षक अपना तबादला शहरी इलाक़ों में करा लेते हैं.
उत्तर प्रदेश की आम सच्चाई है कि गांव का सरकारी स्कूल एक दो शिक्षकों के सहारे चलता है और शहर के स्कूलों में ज़रूरत से ज़्यादा शिक्षक हैं.
इस व्यवस्था के बीच कई अन्य समस्याएं बुदबुदाती रहती हैं, जैसे अधूरा वेतन पाने वाले पैरा शिक्षकों का असंतोष, स्कूल में साफ़ सफ़ाई की समस्या, मरम्मत के लिए महीनों का इंतज़ार.
कोर्ट का आदेश
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इस कठिन परिस्थिति पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अच्छा खासा हथौड़ा चलाया है.
कोर्ट का आदेश है कि सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और चुने हुए जनप्रतिनिधियों के बच्चे अनिवार्य रूप से सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पढ़ें.
इस मामले में कोर्ट ने दंड का प्रावधान भी कर दिया है.
इस आदेश पर अमल की योजना प्रस्तुत करने के लिए न्यायालय ने सरकार को छह महीने का समय दिया है. आदेश की व्याख्या और उसका आधार काफ़ी स्पष्ट है.
कोर्ट की राय में सरकारी स्कूल इसलिए बदहाल हैं क्योंकि समाज में हैसियत रखने वालों की संतानें वहां से चली गई हैं.
अगर अफ़सरों और नेताओं के बच्चे वहां पढ़ेंगे तो शिक्षकों की नियुक्ति और टूटी हुई छतों और खिड़कियों की मरम्मत अपने आप हो जाएगी.
स्कूलों की बदहाली
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न्यायधीशों की यह समझ और आशा तर्कसंगत है. जब फीस लेकर चलने वाले प्राइवेट स्कूल नहीं थे तो अफ़सरों के बच्चे आम नागरिकों के बच्चों के साथ ही पढ़ते थे.
इतना ज़रूर है कि तब आम नागरिकों में मज़दूर और छोटे किसान शामिल नहीं थे. आज उनके बच्चे भी स्कूल जा रहे हैं.
अफ़सर, नेता और मज़दूर के बच्चे प्राइमरी स्कूल में साथ साथ पढ़ेंगे तो समाज का बंटवारा घटेगा, शिक्षा का स्तर भी सुधरेगा, छुटपन से अंग्रेज़ी थोपे जाने की समस्या भी सुलझेगी.
इतनी बीमारियों का एक साथ इलाज़ सपने जैसे लगता है. फ़िलहाल ऐसा लगता है कि इस सपने ने उत्तर प्रदेश के नेताओं और अधिकारियों को खुशी देने की जगह उनकी नींद उड़ा दी है



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