Article By Shyam Dev Mishra Ji (Facebook Group - Struggle for Right to Education Implementation"एक पहल )
Shyam Dev Mishra
आज के सनसनी-भरे माहौल में यह एक उबाऊ-सी पोस्ट प्रतीत हो सकती है, पर न जाने क्यूं, मन हुआ कि एक बार अपने ग्रुप में मौजूद भावी-शिक्षक साथियों से बात करके देखूं कि क्या आजकल फेसबुक पर केवल अपने वर्तमान से बेपरवाह स्वयंभू भविष्यवक्ता या गुप्त-सूत्रों वाले सार्वजनिक ख़ुफ़िया एजेंट या विश्वसनीय रूप से अफवाहें फ़ैलाने में व्यस्त खबरनवीस या कानूनी जानकारियों से लैस मुकदमेबाज या एक दूसरे कि लानत-मलानत में व्यस्त रहने वाले दुर्धर्ष योद्धा ही सक्रिय हैं या शांत मन से किसी विषय पर दुराग्रह-मुक्त हो सामान्य विचार-विमर्श को उत्सुक सामान्य-जन का भी यहाँ कोई अस्तित्व है? सच स्वीकार करूँ तो रोज-रोज पैदा हो रही नई-नई कानूनी पेचीदगियां अब एक अवांछित भार बन रही हैं, जो जितनी जल्दी ख़त्म हो जाये, उतना बेहतर, पर लक्ष्य की प्राप्ति तक इनसे विमुख होना भी संभव नहीं है. कृपया किसी व्यक्ति और घटनाक्रम से इस चर्चा को न जोड़ें, यही करने को उत्सुक लोग इस पोस्ट पर कुछ न करें तो ही बेहतर है. व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप वाले कमेंट्स को कृपया मेरे एडमिन मित्र अविलम्ब और बेझिझक हटा दें.
क्या आप भी मानते हैं कि वास्तविकता को छुपाते हुए हम खुद को अच्छा और ऊंचा दिखाने का या किसी और को घटिया या नीचा दर्शाने का प्रयास कितनी भी सफाई या चालाकी से करें, आपकी कार्यशैली या भाषाशैली स्पष्ट कर देती है कि ऐसा करने के पीछे आपकी क्या मंशा है? आपकी छवि आपकी बातों या कार्यों से बनती है, इसमें कोई दो राय नहीं, पर यह केवल शुरूआती चरण में होता है, कुछ आगे बढ़ने पर आपकी छवि आपकी मंशा की कसौटी पर ही कसी जाती है और सामान्य-जन आपके फैलाये किसी भ्रमजाल में फंसने के बजाय अपनी स्वतंत्र धारणा बनाते हैं. कई बार तो हम दूसरे की छवि बिगाड़ने के प्रयासों में उपरोक्त वास्तविकता को भूलकर इतना आत्म-विमुग्ध हो जाते हैं कि आभास तक नहीं हो पता कि दूसरे की इज्जत उतारने के क्रम में कब खुद हम ही निर्वस्त्र हो गए. आपके द्वारा अपनी गलती छुपाने या दूसरों को गलत ठहराने के प्रयासों के परिणाम भी सदैव नकारात्मक ही होते हैं, जबकि सार्वजनिक रूप से अपनी गलती स्वीकार करना आपकी एक बड़प्पन-भरी सकारात्मक छवि प्रस्तुत करती है. कई बार हम किसी व्यक्ति या घटना से उत्पन्न क्षणिक उत्तेजना को दबा कर उस समय रोक कर स्वयं को संयत रखते हैं और कोई प्रतिक्रिया और प्रत्युत्तर नहीं देते तो कुछ समय बाद हमें हमारा यह आत्म-नियंत्रण लाभ-कारी ही प्रतीत होता है पर उत्तेजनावश उठाये हुए ज्यादातर कदम आगे चलकर खुद को ही एक भूल प्रतीत होते हैं. एक बात और, कोई कम अक्ल वाला व्यक्ति ही सोच सकता है कि केवल गालियाँ खाने भर से किसी व्यक्ति का अपमान हो गया, वास्तव में आपका सम्मान या अपमान आपके प्रति बनी सामान्य धारणा से निर्धारित होता है न कि आपको मिलने वाली गालियों और तारीफों की मात्रा से. खासतौर पे जब आप लोगो से अपने ऊपर विश्वास करने की अपेक्षा करते हों और अपनी छवि अच्छी रखने के प्रति सचेष्ट हों तो इन बातों का ध्यान रखना और भी ज्यादा जरुरी हो जाता है. क्योंकि, ये पब्लिक है, सब जानती है...
अब एक काम की बात, सुप्रीम कोर्ट जाने या न जाने के मुद्दे पर उहा-पोह में फंसे साथी ध्यान दें कि दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट लीगल ऐड कमेटी के दफ्तर में प्रमोद पांडे, आनंद तिवारी, कुमार नीरज, देवेन्द्र सिंह (सभी दिल्ली), शिव कुमार (गाजियाबाद) के साथ मैं भी गया था जहाँ सलाह दी गई कि हाईकोर्ट में अरसे से लटके पड़े अपने मामले को लेकर हम सुप्रीम कोर्ट से में विशेष अनुमति याचिका दायर करके हाईकोर्ट को निर्देशित करने कि मांग कर सकते हैं कि वह "1. केस की एक निर्धारित समय-सीमा के भीतर सुनवाई पूरी करके फैसला सुनाये" और "2. केस का निर्णय होने तक अगली चयन प्रक्रिया शुरू न करने देने का निर्देश सरकार को दे". अपने मामले के दस्तावेज और निर्धारित शुल्क जमा करने के बाद दस्तावेजो के अध्ययन और मामले को बारीकी से समझने के बाद कमेटी के अधिवक्ता/वरिष्ठ अधिवक्ता अगर यह विचार व्यक्त करते हैं कि प्रक्रिया और विषय, दोनों को दृष्टिगत रखते हुए हमारे मामला सुप्रीम कोर्ट में अपील के लिए उपयुक्त नहीं है तो हमारे द्वारा जमा किये गए शुल्क में से मात्र 750 रुपये काटकर शेष राशि हमें वापस कर दी जाएगी. इस प्रकार मौजूदा कानूनी जंजाल से निकलने लिए अगर व्यक्तिगत राय, जिद और दुराग्रह को परे रखकर उपरोक्त कमेटी का रास्ता अपनाया जाये तो वहां स्वतः स्पष्ट हो जायेगा कि हमारा मामला अभी जिस चरण में है, उस स्थिति में सुप्रीम जाया जा सकता है या नहीं? यहाँ स्पष्ट कर दूं कि यह प्रयास सफलता कि गारंटी नहीं है पर एक रास्ता अवश्य हो सकता है. अगर अधिवक्ताओं ने हमारे केस को सुप्रीम कोर्ट में जाने के लिए मान लें, अनुपयुक्त भी बता दें, तो 750 रुपये छोड़कर हमारी पूरी रकम बच जाएगी. अगर हमारा केस कमेटी के अधिवक्ताओं के अनुसार सुप्रीम कोर्ट जाने लायक है तो सुप्रीम कोर्ट की शरण लेने में देर नहीं करनी चाहिए, नतीजा चाहे कुछ भी हो. पर अगर हमें सुप्रीम कोर्ट से उपरोक्त राहत मिल जाती है तो निश्चित ही अलग-अलग मत रखने पर भी हर टी.ई.टी.-समर्थक अभ्यर्थी के लिए यह प्रसन्नता का विषय होगा.
इस विषय में इसी रविवार को दिल्ली में बुलाई गई बैठक में पूरी जानकारी मिल सकती है और आप चाहे तो याचिकाकर्ताओं में शामिल भी हो सकते हैं. अपने काम-काज के सिलसिले में व्यस्त होने के कारण अब तक समय नहीं दे पाया, इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.
Source : http://www.facebook.com/groups/303122093128039/ ( Struggle for Right to Education Implementation"एक पहल )
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