Friday, October 5, 2012

UPTET - October 5 2012 An Overview of State of Affairs on Recruitment of 72825 Trainee Teachers in Uttar Pradesh (Article by Mr. Shyam Dev Mishra )


October 5 2012 An Overview of State of Affairs on Recruitment of 72825 Trainee Teachers in Uttar Pradesh  (Article by Mr. Shyam Dev Mishra )



उत्तर प्रदेश में 72825 प्रशिक्षु शिक्षकों की भर्ती : सरकार से न निगलते बन रही न उगलते!
इस लेख के प्रारंभ में ही स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह लेख केवल उनके लिए है जो टी.ई.टी. मेरिट के आधार पर 72825 प्राथमिक शिक्षकों की भर्ती के लिए 29 /30 नवम्बर और बाद में 2 दिसंबर 2011 को प्रकाशित संशोधित विज्ञप्ति के आधार पर भर्ती के पक्षधर है, तार्किकता और लोकतंत्र में विश्वास करते हैं, न्यायपालिका में पूर्ण आस्था रखते हुए मानते हैं कि अगर लड़ाई लड़ी गई तो न्याय जरूर मिलेगा और इस लड़ाई को सार्थक मानते हैं. भिन्न मत वाले, जो सार्थक और तार्किक बहस में विश्वास रखते हैं, वे भी अगर मेरी जानकारी या राय में कोई वृद्धि या संशोधन करें तो मैं उनका भी स्वागत करता हूँ पर मात्र अपने स्वार्थ या दुराग्रह के कारन अपना राग अलापने पर आमादा महानुभाव इसे पढने में अपना समय न व्यर्थ करें तो उनके लिए उपयुक्त होगा.
वास्तव में कहूं तो मेरी यह यह पोस्ट स्थिति से पूर्णतया अवगत जानकार साथियों के लिए नहीं , उन आम अभ्यर्थियों के लिए हैं जिनकी काल्स, संदेशों और चैटिंग का अपनी व्यस्तता के कारण मैं उत्तर देने में अक्षम रहता हूँ.
पिछले 8 महीने से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चल रहे 72825 प्रशिक्षु शिक्षकों की भर्ती से सम्बंधित तमाम मुकदमों में अबतक के नतीजे अभ्यर्थियों के लिए सकारात्मक नहीं, निराशाजनक ही रहे हैं. वहां किये गए प्रयासों के गुण-दोष की समीक्षा बेमानी है क्यूंकि कोई खुद को कितना बड़ा भी कानूनी पंडित , विश्लेषक, सटीक पूर्वानुमानकर्ता या भविष्यदृष्टा क्यूँ न बताये , इलाहाबाद में आज जो स्थिति है , उसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की थी, फिर इसका ठीकरा कोर्ट केसेज देख रहे चंद सक्रिय साथियों पर फोड़ना उनके साथ ज्यादती होगी. वैसे भी कुछ न करने वालों , (इनमे अगर आप मुझे भी शामिल करें तो मैं आपत्ति नहीं उठाऊंगा) से गलती हो ही नहीं सकती और वे दूसरों पर ऊँगली उठाने को पूर्णतया स्वतंत्र होते हैं. परन्तु वास्तव में काम करने वाले को ही उस दबाव का अंदाज़ा होता है जो हजारो-लाखों लोगो की अपेक्षाओं से बनता है, सही इरादे से भी उठाए गए किसी कदम के भी गलत परिणाम गलते की आशंका से बनता है, स्वयंभू फेसबुकिया विद्वानों की तरह पल पल स्टैंड बदलने और जरुरत पड़ने पर उसे भूलकर अगले ही पल नया स्टैंड ले लेने की स्वतंत्रता भी इन्हें नहीं होती.
निराश हो चले साथियों से केवल इतना कहूँगा कि अगर सरकार के खिलाफ भी हमारी लड़ाई पिछले 9 महीने से जिन्दा है तो यह हमारे पक्ष की मजबूती का ही नतीजा है. दूसरा जब आपको विश्वास है कि आपके साथ अन्याय हुआ है तो उसके विरुद्ध लड़ना ही पौरुष है.
लखनऊ उच्च न्यायालय में अरविन्द सिंह जी और उनके साथियों द्वारा दायर मुक़दमे में कोर्ट में सरकार द्वारा एक हफ्ते में जवाबी हलफनामा न दाखिल करने की स्थिति में अंतरिम राहत की याचिका को निस्तारित कर देने की चेतावनी निस्संदेह जहाँ इलाहाबाद के घटनाक्रम से निराश अभ्यर्थियों के लिए संजीवनी सिद्ध हुई है, वहीं मदांध सरकार के लिए एक कडवे सच से साक्षात्कार ! शायद सरकार को अब आभास हो कि राज सरकार का नहीं, असल में कानून का होता है, जो न्याय और सत्य के लिए है न कि व्यक्तिगत और राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए.
इस याचिका में सरकार द्वारा हाल में किये गए पन्द्रहवें संशोधन के मार्फ़त टी.ई.टी. मेरिट के स्थान पर एकादेमिक प्रदर्शन के आधार पर बनाये गए गुणांक मेरिट के फार्मूले को राज्य में संचालित अलग-अलग बोर्डों, विश्व-विद्यालयों की परस्पर भिन्नता वाली मूल्याङ्कन-पद्धति का हवाला देते हुए सिरे से अतार्किक और अव्यवहारिक बताते हुए इस संशोधन को ही निरस्त करने की मांग भी की है. इस याचिका का जवाब देने में शायद सरकार को इतनी परेशानी हो रही है कि पिछले आठ महीने में पहली बार इस मामले में स्केलिंग की सम्भावना तलाशने की खबर अख़बारों में स्पष्ट तौर पे जताई गई. पर यहाँ सरकार एक और नए मकडजाल में उलझने जा रही है. असल में मुद्दा यहाँ बेहतर प्रक्रिया के निर्धारण का नहीं, टी.ई.टी. मेरिट के आधार पर चयन के लिए प्रारंभ की गई एक विधि-सम्मत , वैध और तर्कसंगत प्रक्रिया में निहित राजनैतिक स्वार्थों के लिए परिवर्तन करने की सरकार की नीयत, शक्ति, वैधता और सामर्थ्य का है. पर अगर देखा भी जाये तो अब तक अगर कही हुआ है तो स्केलिंग पद्धति का प्रयोग अभी तक अर्हता निर्धारण यानि कट-ऑफ निर्धारण के लिए होता आया है, चयन के आधार के रूप में नहीं. आप किसी प्रक्रिया में शामिल होने के लिए उ.प्र. बोर्ड के 60% और सी.बी.एस.ई. बोर्ड के 80% को को अर्ह मानते हैं तो सम्बंधित बोर्डों के इस से अधिक अंक पाने वाले सभी अभ्यर्थी अर्ह माने जाते हैं. पर अगर आप किसी चयन के लिए स्केलिंग को अपनाते हैं तो इस मानक के आधार पर जब यू.पी. बोर्ड का 1 प्रतिशत अंक सी.बी.ई.सी.बोर्ड के 1.33 प्रतिशत अंक के बराबर है, ऐसे में तो यू.पी. बोर्ड में 90 प्रतिशत अंक पाने वाले अभ्यर्थी को पछाड़ने के लिए बेचारे सी.बी.एस.ई. वाले अभ्यर्थी को तो 120 प्रतिशत की जरूरत होगी जो असंभव है. साथ ही बी.एड. में प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय श्रेणी के आधार पर 12, 6 और 3 गुणांक देने के लिए क्या सरकार यह फिर से तय करने की हैसियत में होगी कि फलानी युनिवेर्सिटी में 60 प्रतिशत एवं ऊपर वालों को प्रथम श्रेणी, 45 प्रतिशत एवं ऊपर वालों को द्वितीय श्रेणी और 33 प्रतिशत एवं ऊपर वालों को तृतीय श्रेणी में रखा जायेगा और फलानी यूनिवर्सिटी के ये प्रतिशत क्रमशः 80, 55 एवं 40 होंगे? फिर तो विभिन्न विश्व-विद्यालयों की उपाधियों में भेद-भाव का एक नया मामला बनेगा और जिन युनिवर्सिटियों के छात्र इस वजह से पिछड़ेंगे, वो क्या कोर्ट केसेज की झड़ी नहीं लगा देंगे? वैसे यह अभी एक सम्भावना मात्र है पर आशा है कि हमारी चुनी हुई सरकार भी इस नज़रिए से मामले को देखेगी.
हाल ही में जिस प्रकार से नियुक्ति के स्थान पर फिलहाल VBTC प्रशिक्षण के लिए विज्ञापन आने कि सम्भावना के मद्देनज़र टी.ई.टी. फेल बी.एड. धारकों ने इस में आवेदन करने का जो दावा पेश किया है, वर्तमान नियमों के हिसाब से उसमे काफी वज़न है क्यूंकि वाकई में नियमावली के अनुसार प्रशिक्षण के लिए सरकार न टी.ई.टी. अर्हता मांग सकती है न ही टी.ई.टी. फेल बी.एड. वालों को इसमें बैठने से रोक सकती है.
पर यह तो मात्र एक शुरुआत है, लड़ाई अभी बाकी है. पिछले 8 महीने में स्थितियों में नाटकीय परिवर्तन हुए है, हमें भविष्य में आ सकने वाली हर संभावित किसी अनिश्चितता, किसी भी संभावना का अंदाजा लगाना होगा, उसके संभावित दुष्परिणामों का आंकलन करना होगा और समय रहते संभावित समाधान और विकल्प तलाश कर, अवसर उत्पन्न होते ही तत्काल उसके प्रतिकार के लिए समर्थ और सन्नद्ध रहना होगा. इस स्थिति में केवल अपने विचारों पर अड़े रहने की हठधर्मिता, दूसरों के विचारों को बिना विचार किये नकार देने की वैचारिक कूपमंडूकता और व्यक्तिगत अहम् के टकराव के कारण किसी व्यक्ति को साथ न लेने वाली छुआ-छूत संगठन और एकता के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकती है.
आज मुकदमों की स्थिति को लेकर कानूनी राय बंटी हुई है. व्यक्तिगत पसंद को परे रखकर, शुद्ध कानूनी रूप से स्थिति के आंकलन, संभावित विकल्पों की तलाश, संगठन को बचाए रखने और प्रदेश भर के अभ्यर्थियों का विश्वास और मनोबल बनाये रखने और भिन्न-भिन्न राय रखने के बावजूद इस लड़ाई से जुड़े हर साथी को साथ रखने, और इस लड़ाई के हर गंभीर मोर्चे पर लड़ रहे साथियों को हर संभव सहयोग करने के उद्देश्य से दिल्ली में पिछले महीने 16 व 17 सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट के वकील श्री आनंद मिश्रा जी की मौजूदगी में हुई दो-दिवसीय खुली और पारदर्शी बैठक काफी हद तक सफल हुई, ध्यान दें कि ये मीटिंग किसी कमिटी की नहीं, इस लड़ाई से नौकरी पाने के लिए आशावान और लड़ने के लिए तैयार हर आम अभ्यर्थी की मीटिंग थी, जिसमे प्रदेश भर से 50 से अधिक साथी आये, वकील साहब की मौजूदगी में अपने विचार रखे, अपनी शंकाएं रखी और इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही की अपनी जिद पर अड़े रहने के बजाय हर आगंतुक ने स्थितियों के अनुसार अपने रुख में लचीलापन रखने और तदनुसार निर्णय लेने और बदलने पर सहमति दी. इस मीटिंग में भाई विवेक सिंह (प्रतापगढ़), रत्नेश पाल (कानपूर), देवेन्द्र सिंह (दिल्ली), एस.बी.सिंह (दिल्ली), आनंद तिवारी (दिल्ली), प्रमोद पाण्डेय (दिल्ली), कुमार नीरज (दिल्ली), शिव कुमार (गाज़ियाबाद), विजय सिंह तोमर (कानपूर), अलकेश प्रजापति (दिल्ली), विपिन तिवारी (प्रतापगढ़), अमित मिश्रा (औरैय्या), नीलेश पुरोहित (ललितपुर) के साथ साथ हरीश गंगवार (बरेली), के साथ साथ विकास कुमार. सुरेन्द्र सिंह सहित मेरठ, हापुड़ और तमाम जिलो के प्रतिनिधि थे. इस मीटिंग ने एक ऐसा समूह खड़ा करने में मदद की जो इस बड़ी लड़ाई के हर मोर्चे को मजबूती देने के प्रयास में तो रहेगा ही, आवश्यकता पड़ने पर स्वयं भी एक्शन लेने में परहेज नहीं करेगा. जरुरी हुआ तो इलाहबाद और लखनऊ या कही भी, किसी भी याची के साथ जुड़ने को तैयार है अगर जीत के लिए ऐसा करने को तैयार है, पर आवश्यकता पड़ने पर स्वयं भी एक्शन लेने में परहेज नहीं करेगा. इसकी पारदर्शिता, खुलापन और लचीलापन ही इसकी शक्ति है और इसके प्रति अल्पकाल में लोगो में इसके प्रति विश्वास और उनके समर्थन का कारण, क्यूंकि यह किसी से अलग नहीं, सबके साथ है. मीटिंग में आये साथियों के साथ साथ, तमाम साथी जो चाहकर नहीं आ पाए, उन्होंने भी इस लड़ाई में वैचारिक और आर्थिक सहयोग तक किया, (दिल्ली में मिले जिन साथियों के नाम यहाँ नहीं हैं, उनका महत्त्व किसी भी प्रकार से कम नहीं होता, पर अगर आप यह पोस्ट पढ़ रहे हैं तो कृपया एक कमेन्ट द्वारा अन्य को अवगत कराएँ) ).
इस मीटिंग से यह स्पष्ट हुआ कि यदि एक आम अभ्यर्थी को विश्वास हो जाये की उसकी लड़ाई इमानदारी से लड़ी जा रही है तो वह हर संभव सहयोग करने को तत्पर है और आर्थिक तंगी इस लड़ाई में बाधा नहीं बनेगी. इस मीटिंग के परिणाम स्वरुप न सिर्फ तत्कालीन स्थिति के अनुसार आनन्-फानन में सुप्रीम कोर्ट में सीधे विशेष अनुमति याचिका दाखिल करने के बजाय पहले हाईकोर्ट में डिविजन बेंच में स्पेशल अपील का परिणाम देखने की सहमति बनी.
19 व 20 सितम्बर को इलाहाबाद के कई वकीलों से गहन विचार-विमर्श के अलावा शीर्ष कानूनी दिग्गज आर. के. जैन साहब से इस मुद्दे पर रत्नेश पाल, पुनीत सिंह (प्रतापगढ़) शलभ तिवारी (हरदोई), विनोद सिंह व अवधेश तिवारी (इलाहाबाद), धर्मेन्द्र श्रीवास्तव (उन्नाव) व मेरी उपस्थिति में एक पारदर्शी विचार-विमर्श हुआ, जिसमे उन्होंने हाई कोर्ट में स्पेशल अपील अभी न करने और विज्ञापन आने के बाद ही कोई कदम उठाने की सलाह दी. इसी बीच देवरिया के भाई प्रियरंजन वर्मा जी ने अपने मामा जी, पूर्व अतिरिक्त महाधिवक्ता, भारत सरकार, श्री अमरेन्द्र शरण जी से इस मामले की चर्चा के बाद हम सबको बताया कि अभी विज्ञापन आने के पहले कुछ करना सही नहीं होगा. उनके मामाजी के विचार से हमें अपनी लीगल रिमेडीज यानि कानूनी उपचार के अवसर कम नहीं करने चाहिए अर्थात, सिंगल बेंच, डबल बेंच और फिर आवश्यकता पड़ने पर सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए. पर दिल्ली के वकील द्वारा विज्ञापन निकलने के पूर्व ही सुप्रीम कोर्ट आने की सलाह दी गई. ऐसी स्थिति में कोई सलाह अंतिम नहीं मानी जा सकती थी, अपने पास उपलब्ध सीमित समय, सीमित संसाधन और सीमित विकल्पों का शत-प्रतिशत प्रयोग अपरिहार्य था, साथ ही इस काम के लिए आ रहा पैसा कोई हराम का पैसा नहीं था जिसे मनमाने और हलके तरीके से बर्बाद कर दिया जाये. यहाँ पर अलग-अलग तरीकों से लड़ रहे साथियों ने भी अपने लक्ष्य को प्रमुखता देते हुए एक-दुसरे का सहयोग किया जो एक बड़ी उपलब्धि थी. इलाहाबाद हाईकोर्ट में जहाँ भाई सुजीत सिंह ने भाई रत्नेश पाल की कई मुश्किलों के समाधान में सहयोग किया तो वही भाई सुजीत सिंह के द्वारा डिविजन बेंच में स्पेशल अपील के लिए धन की कमी बताये जाने पर दिल्ली में हुई उपरोक्त मीटिंग में आये सदस्यों की सहमति से अविलम्ब आनंद तिवारी जी के खाते में इकठ्ठा सहयोग राशि से उनकी जरुरत पूरी की गई. इस मीटिंग में आये साथियों ने हरदोई के साथियों द्वारा लखनऊ में दायर याचिका की जानकारी मिलने पर उनसे स्वयं संपर्क कर उनको विश्वास दिलाया और यह सुनिश्चित किया कि उनको हर संभव आवश्यक सहयोग समय पर मिले. वैसे इन साथियों का प्रयास साधुवाद का पात्र है. आनंद तिवारी के खाते में आये एक-एक पैसे का हिसाब हम सबके पास है जो कभी भी सार्वजानिक किया जा सकता है. साथ ही बताना चाहूँगा कि इस काम के लिए 3 दिन इलाहाबाद में रुके रत्नेश पाल और उनके साथियों द्वारा इलाहाबाद आने जाने, ठहरने और खाने के नाम पर एक भी रुपया इस कोष से नहीं लिया गया. आगे भी जरुरत पड़ने पर और आवश्यक होने पर हम अपने किसी मोर्चे को मजबूत करने के लिए सहयोग को प्रतिबद्ध हैं. पारदर्शिता हमारी पहली और आखिरी शर्त है. इस समूह की उपरोक्त गतिविधियों की पुष्टि सम्बंधित साथियों से कोई भी कर सकता है. यह साथी नाम के लिए नहीं, मात्र काम के लिए सक्रिय हैं . ये सुप्रीम कोर्ट में सीधे कूद पड़ने को आतुर लोगो की नहीं, स्थिति के अनुसार किसी भी हद तक अपने रूख में लचीलापन रखने को तैयार लोगो का एक गंभीर प्रयास था और एक अदृश्य कारक की तरह इस आन्दोलन को जिन्दा रखने का छोटा सा ही सही, पर ईमानदार प्रयास है.
वैसे तमाम ईमानदार प्रयासों की आड़ में या इनके साथ, रिटों का मार्केट इलाहाबाद से लेकर लखनऊ तक गरमा गया है. सबकी रिटों के अपनी-अपनी यूएसपी है, अनमैच्ड फीचर हैं, किसी में कॉम्बो ऑफर है तो किसी में अर्ली-बर्ड ऑफर. किसी ऑफर में “जो-आएगा-वोही-पायेगा” की “शर्तें लागू” हैं तो किसी में ग्रुप में आने पर “ग्रुप-डिस्काउंट” तक मिल रहा है. कुछ इतनी गोपनीय हैं कि उनके फीचर्स देखने के पहले रजिस्ट्रेशन जरुरी है. कुछ का काम तो ख़ुफ़िया ब्यूरो की याद दिलाता है . पर ठहरिये, आप सब तो सिर्फ 2 दिसंबर 2011 को सरकार द्वारा प्रकाशित विज्ञापन के आधार पर चयन प्रक्रिया पूरी करने भर के लिए लड़ रहे हैं न? फिर ये क्या है? असल में न्यायालय द्वारा केवल याचियों को लाभ दिए जाने की आशंका के मद्देनज़र जहाँ कुछ डरे हुए अभ्यर्थियों द्वारा रिटें डाली जा रही हैं वहीं कुछ लोगो द्वारा इसी भय का दोहन करके आम अभ्यर्थी को डराकर स्पोंसरशिप हासिल की जा रही है. कुछ लोग नाम के लिए रिट्स लांच कर रहे हैं तो कुछ काम के लिए, पर ये सब कुछ मनमाने तौर पर हो रहा है, सही और गलत में भेद करने का कोई पैमाना नहीं है पर निर्बाध गति से बन रहे ये छोटे-छोटे समूह क्या एकदम से हुए किसी जन-जागरण का परिणाम है या मुख्य संगठन से ख़त्म हो रहे विश्वास का?? कुछ याचिकाएं लांच हो चुकी है, कुछ होने वाली है तो कुछ प्रतीक्षासूची में हैं. यहाँ मेरा उद्देश्य किसी के प्रयासों या विचारों को कमतर दिखाना नहीं, एकदम से परिदृश्य में आई या आनेवाली याचिकाओं में से गंभीर और मजबूत याचिकाओं की पहचान में आनेवाली समस्या की और ध्यान दिलाना है. किस आधार पर अभ्यर्थी और संगठन किसी याचिका के बारे में निर्णय करें कि उसका सहयोग, समर्थन या बचाव किया जाये, अबतक जितने मोर्चे खुले, जितनी याचिकाएं पडी, उनका हश्र बताने की कोई जरूरत नहीं. प्रश्न गंभीर है, क्यूंकि अगर सारे साथी एक साथ मिलकर सागर का रूप लेते तो बड़े से बड़े पर्वत लील जाते. पर आज ये अभी कई नदियों के रूप में बंटे हुए प्रवाहमान हैं, फिर भी इनके वेग के सामने शत्रु का टिकना मुश्किल हो सकता है, अगर ये सब छोटे छोटे नालों और नालियों में बंट गए या बाँट दिए गए तो गिनती में बहुत होंगे पर परिणाम में शून्य. यह एक सामान्य टिप्पणी है जो किसी गंभीर, जानकार और जुझारू साथी द्वारा किये जाने वाले छोटे से सही, पर सही दिशा में सही तरीके से किये गए ईमानदार प्रयास पर लागू नहीं होती, और वो भी कोई चमत्कारिक परिणाम दे सकते हैं पर पिछले 8 महीने के घटनाक्रम को देखते हुए इसके भरोसे पर बैठे रहना बहुत बड़ा जुआ साबित हो सकता है.
ऐसी स्थिति में कोई अपनी राय को अंतिम सत्य बताये तो यह प्रथमदृष्टया असत्य होगा. आज हम इलाहाबाद और लखनऊ में सिंगल बेंच में जूझ रहे हैं. इलाहाबाद वाले टंडन साहब ने हमारी बात सुनकर भी सरकार को 15 दिन के अन्दर विज्ञापन निकलने की अनुमति दी है वही लखनऊ में गुप्ता साहब ने सरकार द्वारा हफ्ते भर में जवाब न दिए जाने की स्थिति में याचियों को अंतरिम राहत दे डालने की चेतावनी दे दी है. डिविजन बेंच ने हमारी स्पेशल अपील डिसमिस करते हुए मामला सिंगल बेंच के पास ही लौटा दिया है और उसके निर्देश के बावजूद भी सिंगल बेंच से हमें सकारात्मक निर्णय नहीं मिला.
आगे क्या होने वाला है, कहा नहीं जा सकता है. पर चूंकि सत्य हमारे साथ है, निराशा हमसे दूर ही रहे तो बेहतर है. विधि-विशेषज्ञों की राय में हम गलत नहीं, पीड़ित हैं, हमारा पक्ष मजबूत है. ऐसे में अब दो रास्ते हैं, पहला, विज्ञापन आने के पहले सुप्रीम कोर्ट जाना ताकि वो आ ही न पाए या सिंगल बेंच को हमारे पक्ष में कोई निर्देश दिया जाये, और दूसरा, विज्ञापन आने के बाद सुप्रीम कोर्ट जाना. वैसे विज्ञापन आने के बाद कुछ न कुछ करना विकल्प नहीं, मज़बूरी है, इस से कोई इंकार नहीं कर सकता, पर शायद उस स्थिति में भी सुप्रीम कोर्ट नहीं, सिंगल बेंच में ही जाना पड़ेगा. कुल मिलाकर विज्ञापन के पहले सीधे सुप्रीम कोर्ट जाना, और बाद में नए सिरे से सिंगल बेंच, डबल बेंच होते हुए सुप्रीम कोर्ट जाना, ये दो विकल्प नहीं, दो मौके हैं. दूसरा अपरिहार्य है पर पहला अगर हाथ से निकल गया तो दोबारा नहीं मिलेगा. लखनऊ के हालिया आदेश से राहत पाकर अब यह प्रयास हो रहे है कि अभ्यर्थियों में बढ़ रही बेचैन और हो सकने वाले नुकसान के मद्देनज़र शीघ्रातिशीघ्र अब वकीलों के बजाय मामले को सुप्रीम कोर्ट लीगल सर्विस सहायता समिति के सामने रखकर इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट जाने न जाने के मुद्दे पर, उनकी राय का अनुपालन किया जाये जहाँ के पैनल में वरिष्ठ अधिवक्ता ही होते हैं. और व्यक्तिगत सनक, दुराग्रह, विचार, राय या जिद्द के बजाय अगर सामूहिक हित के लिए कानूनी सिद्धांतों , प्रक्रियाओं और विशेषज्ञों को वरीयता दी जाये तो वर्तमान संक्रमणकाल में शायद ही किसी को आपत्ति हो.
इस लड़ाई के सभी मोर्चों में समन्वय, आपसी तालमेल, सोच-समझकर लिए जाने वाले निर्णय, कानूनी सलाह को वरीयता , संगठन की मजबूती और आम अभ्यर्थी के विश्वास व मनोबल को बनाये रखने के लिए सबको साथ लेकर चलना अपरिहार्य है, समय की आवश्यकता है. ताकि साथी न बंटे, शक्ति न बंटे और संसाधन न बंटे. और समय रहते स्थिति के वास्तविक मूल्याङ्कन करने, आवश्यक रणनीति बनाने और उसके लिए समय से तैयार हो जाने के लिए अब परस्पर विचार-विमर्श की महती आवश्यकता है. बेहतर होगा कि सबलोग मिलकर जल्द से जल्द एक तिथि, समय और स्थान आपस में तय करे एवं तदनुसार एक बैठक का आयोजन करें ताकि संभावित बिखराव को रोका जा सके और विजय के पथ पर ठोस कदम बढ़ाये जा सके. एक आम अभ्यर्थी को अपने अग्रणी साथियों से अभी बहुत आशा है.

इतनी बड़ी पोस्ट के लिए क्षमाप्रार्थना के साथ
आपका साथी
श्याम देव मिश्रा


Source : http://shyamdevmishra.jagranjunction.com/2012/10/05/october-5-2012-an-overview-of-state-of-affairs-on-recruitment-of-72825-trainee-teachers-in-uttar-pradesh/

4 comments:

  1. shyam ji great job!!!!mai sadhna allahabad se hu. mai rajrshi tondon open university se b.ed hu. 2007 vbtc me counselling k baad doc. diet me submit kara liye gaye.high court se case jeet gaye lekin gov sup crt chali gayi abhi waha se bhi case kharij ho gaya lekin govt ne fir review k liye apply kar diya hai agar aap is case par kuchh prakash dale to bada ehsaan hoga.

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  2. आपने जो किया है या जो करने वाले है उसका इस पोस्ट में आपने जिक्र किया है यह अपने आप में एक सराहनीय कदम है | अब यह मामला इतना पेचीदा हो गया है कि इसे सुलझाना मुश्किल जरुर है नामुमकिन नहीं है | व्यक्तिगत तौर पर मैं इसे प्रक्रिया विरोधी करार दे सकता हूँ लेकिन मैं ऐसा नहीं करूँगा क्योकि मैं भी न्याय और अन्याय में फर्क समझता हूँ और चाहता हूँ कि सभी को न्याय मिले यही धर्मसम्मत है | लेकिन साथ ही मेरा यह मानना भी है कि एक रोगी को सही समय पर इलाज़ न मिलने के कारण उसके रोग और उसकी पीड़ा बहुत अधिक बढ़ जाएगी | बेरोजगारी भी आज के समय में एक रोग ही है जो पढाई के आगे बढ़ने के साथ साथ बढ़ता जाता है | ये तो सच है कि सभी लोग अपने अपने हित कि बात साधने में लगे है लेकिन कोई भी अपने बढ़ते क़दमों को बढ़ाते समय ये देखना निश्चय ही भूल जाता है कि कहीं उसका उठाया गया कदम किसी के पेट या लाश पर तो नही है |
    मुझे आज की पोस्ट में बताये गए रस्ते ही अनुसार न्याय के मिलने में कोई भी संदेह नहीं है लेकिन क्या इस तरह की होने वाली मनमानियो को रोकना नहीं चाहिए ? जब तक कोर्ट से न्याय नही मिल जाता है तब तक के लिए चल रही प्रक्रिया में अवरोध होगा | सरकार की मंशा क्या है ? ये तब तक नहीं जाना जा सकता है जब तक वह विज्ञापन प्रकाशित न करे | अब चूँकि नियमावली में संशोधन किया जा चुका तो विज्ञापन उसी आधार पर निकले गा ! तो फिर सर्वोच्च न्यायलय की शरण में जाने में क्या संदेह है ? मई तो कहता हूँ कि सर्वोच्च न्यायलय में इस तरह की होने वाली राज्य सरकारों की मनमानी को रोकने के लिए कानून बनाने, तब तक क्या अंतरिम राहत दी जा सकती है उस पर विचार करने एवं सभी प्रकार की नियुक्तियों के सम्बन्ध में राज्य सरकारों के हस्तक्षेप को न्यूनतम अथवा समाप्त करने के साथ साथ भ्रस्ताचार मुक्त व्यवस्था कैसे की जाये ? साथ ही नियुक्तियों के लिए पारदर्शिता कैसे सुनिश्चित की जाये इसके लिए एक निश्चित मापदंड पर विचार करने के लिए एक आयोग का गठन किया जाये और वह अविलम्ब कार्य को पूरा कर ३ माह में अपने सुझाव कानून मंत्रालय एवं सर्वोच्च न्यायलय के साथ साथ संसद में क़ानून बनाने को अपनी अनुशंशा करे | जिससे इस तरह के मामले आगे न आयें और बेरोजगारी न बढे | आज केवल शिक्षा विभाग में ६ लाख से भी ज्यादा अध्याप के पद खाली है तो केसे भारत शिक्षा में क्षेत्र में अपना परचम लहरा सकता है ? हमें स्वयं ही कुछ ऐसा कुछ करना होगा जिससे इस देश में इस बेरोजगारी हो | अभी हाल ही मे सर्वोच्च न्यायलय के रुख को देखते हुए जैसा की कहा है कि जल्दी ही खली पड़े पदों पर नियुक्तियां की जानी चाहिए को देखते हुए प्रथम दृष्टि में अच्छी खबर है लेकिन वास्तविकता यह है कि इस देश की सरकारें यह तब करना चाहती है जब चुनाव सर पर आने वाले हों और भोली भाली जनता उन्हें वोट दे सके | अब धीरे धीरे सरकारों के नापाक चेहरे सामने आ रहे है बस इन्हें समझना है और सही और गलत का फैसला करना है झूठे चुनावी वायदे कितने बड़े सब्जबाग थे अब तो सबकी समझ में आ गया होगा ? जो हुआ उसे भूलकर आगे बढ़ने का नाम ही जिंदगी है इसलिए अब हमें भी बढ़ना होगा क्योकि पेट में भूख रोज लगती है और रोजी रोटी का भी तो इंतजाम करना है | फिर मिलूँगा आपका साथी |

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  3. ya to tum 100% swarthi ho ya you are 100 % mad tum to humara bhi nuksan kar rahe ho yaar iss bharti ko ho jane do chahe kisi bhi merit gunank par sarkar ise kare

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